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नंदी ग्राम से संदेशखाली तक ममता बनर्जी की यात्रा— डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

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ममता ने मई 2011 में 34 साल के कम्युनिस्ट शासन को उखाड कर पश्चिमी बंगाल का शासन संभाला था । लेकिन इस सत्ता पलट के  पीछे नंदी ग्राम का वह जन आन्दोलन था जिसने कम्युनिस्टों का जन विरोधी चेहरा नंगा कर दिया था । 2006 के आसपास ही यह आन्दोलन शुरु हुआ था । सरकार विकास के नाम पर किसानों की जमीन पर कब्जा करने का प्रयास कर रही थी । यह जमीन किसी इंडोनेशिया की कम्पनी को देनी थी । औने पौने दामों पर ली जा रही जमीन इस जमीन से ग़रीब किसानों की रोज़ी रोटी चलती थी । इसलिए  किसान इसका विरोध कर रहे थे । कम्युनिस्ट पार्टी अपने उस वक़्त के “शाहजहों” के बल पर किसानों को ‘लाल सबक’ सिखा रही थी । ममता बनर्जी ने उस वक़्त लाल झंडे वालों की इस गुंडागर्दी का विरोध किया था । लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि नंदी ग्राम के इस आन्दोलन को चलाने  के पीछे असली ताक़त शुभेन्दु अधिकारी की थी । दोनों की इस रणनीति में ममता बनर्जी को इस आन्दोलन का सार्वजनिक चेहरा बनना था और शुभेन्दु अधिकारी को आन्दोलन को संगठित करना था । उसका सही परिणाम भी निकला । पश्चिमी बंगाल से कम्युनिस्टों की दशकों पुरानी सत्ता ढेरी हो गई ।
लगता है सत्ता संभालने पर ममता बनर्जी ने गहराई से अध्ययन किया होगा कि आख़िर बंगाल जैसे प्रान्त में , जो देश की बौद्धिक चेतना का केन्द्र माना जाता है, कम्युनिस्ट इतने लम्बे अरसे तक सत्ता पर गेंडुली मार कर कैसे बैठे रहे ? वह भी तब जब उनके शासन काल में हर क्षेत्र में पिछड़ रहा था । उद्योग धन्धे प्राय: समाप्त हो गए थे ।  विश्वविद्यालय अध्ययन का केन्द्र न रह कर राजनीति का अड्डा बन गए थे । कम्युनिस्टों के शासन काल की कार्य प्रणाली का कोई भी गहराई से अध्ययन करेगा तो वह तुरन्त उसके मुख्य बिन्दुओं को पकड़ सकता है । सबसे बड़ा कारक था पश्चिमी बंगाल में ‘शाहजहाँ’ जैसे ज़मींदार स्थापित करना । इस प्रकार के ज़मींदारों को पार्टी किसी क्षेत्र विशेष का ठेका दे देती थी । उस क्षेत्र के वोटरों को पार्टी के पक्ष में पोलिंग बूथ तक लेकर आने और उनको लाल झगड़े के पक्ष में भुगताने का महत्वपूर्ण काम पार्टी ने इन ज़मींदारों को सौंप रखा था । बौद्धिक शब्दावली में पार्टी ने इसी की व्याख्या ‘सर्वहारा की क्रान्ति’ के नाम से कर दी थी । व्याख्या करने का यह काम पार्टी ने विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों को दे रखा था , जो इसे बख़ूबी निभा रहे थे । कम्युनिस्टों ने यह शासन पद्धति अंग्रेज़ों से ही सीखी थी । अंग्रेजों ने जब बंगाल पर कब्जा किया था को उन्होंने स्थानीय लोगों को डराने धमकाने के लिए यही पद्धति अपनाई थी । कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत में शासन की इस अंग्रेज़ी पद्धति को और गहराई से तब समझ लिया था जब वे 1942 के विश्व युद्ध में सुभाष चन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज के खिलाफ मोर्चा लगा कर डट गए थे और इंग्लैंड के साथ मिल कर क़दम ताल करने लगे थे । कम्युनिस्टों से यह रणनीति ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री बनने के बाद जल्दी ही उधार ले ली लगती है । कम्युनिस्टों की सत्ता चली गई तो बंगाल के ऐसे सभी शाहजहाँ एकदम अनाथ हो गए । वैसे भी अब लाल फुदकना लगा कर बाँस लेकर घूमने का कोई लाभ नहीं रह गया था । लेकिन यहाँ एक प्रश्न अवश्य पैदा होता है जिसका उत्तर दिए बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता । यह प्रश्न है कि पूरे बंगाल में जिला जिला में ऐसे शाहजहाँ होते हुए भी मतदाताओं की हिम्मत सीपीएम को हराने की कैसे पड़ी ? उसका एक ही उत्तर है कि जब शुभेन्दु अधिकारी और ममता बनर्जी ने अपने जीवट से नंदी ग्राम में कम्युनिस्टों को आक्रामक से सुरक्षात्मक स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया तो आम लोगों को विश्वास हो गया कि कम्युनिस्टों के शाहजहांओं को भी पराजित किया जा सकता है । यदि पशुबल से नहीं तो वोट के बल से , और बंगालियों ने सचमुच कम्युनिस्टों को पोलिंग बूथों में धूल चटा दी ।
अब जैसे जैसे ममता बनर्जी का बंगाल की आम जनता से सम्बध टूटता जा रहा है , वैसे वैसे उसे भी सत्ता में बने रहने के लिए ‘शाहजहों’ की जरुरत पड़ने लगी । लेकिन नए शाहजहाँ बनाने में तो बहुत समय दरकार था । इसलिए ममता बनर्जी ने शार्टकट ही अपनाया । उसने कम्युनिस्टों द्वारा बनाए और पाले पोसे शाहजहांओं को ही तृणमूल की टोपी पहनाने का निर्णय कर लिया । उधर कम्युनिस्ट पार्टी के शाहजहाँ भी बदले हालात में लाल टोपी पहनने में असहज महसूस कर रहे थे । उन्होंने फुंदने वाली हरी टोपी पहन ली थी । ममता बनर्जी को भी इसी प्रकार की हरी टोपी वाले शाहजहाँ चाहिए थे । इस टोपी से मजहब का लाभ भी लिया जा सकता था और हिन्दु रीति रिवाजों वालों को पशुबल से डराया जा सकता था । ये शाहजहाँ ममता बनर्जी की पार्टी के लिए ‘टू इन वन’ की भूमिका अदा कर रहे थे । लेकिन अपने इस पूरे प्रयोग में ममता बनर्जी यह भूल गईं कि इस प्रकार के शाहजहाँओं के बलबूते देर तक किसी जनता को बन्धक बना कर नहीं रखा जा सकता । इस प्रकार के शाहजहांओं के खिलाफ पहला विद्रोह नंदी ग्राम से शुरु हुआ था और अब यह दूसरा विद्रोह संदेशखाली से शुरु हुआ है । नंदी ग्राम आन्दोलन का नेतृत्व शुभेन्दु अधिकारी और ममता बनर्जी कर रहीं थीं और संदेशखली आन्दोलन का नेतृत्व शुभेन्दु अधिकारी और भारतीय जनता पार्टी कर रही है । उस वक़्त सत्ता के नशे में मदहोश कम्युनिस्ट नंदी ग्राम के संदेश को पकड़ नहीं पाए थे । इसका एक कारण यह भी था कि उनका सम्बध प्रदेश की आम जनता से टूट चुका था । अब सत्ता के नशे में मदहोश ममता बनर्जी संदेशखली के संदेश को पकड़ नहीं पा रही हैं क्योंकि उसका भी प्रदेश की आम जनता से टूट चुका   लगता है । इतिहास का एक चक्र पूरा हो गया है ।  लगता है बंगाल में इतिहास एक बार फिर अपने आप को दोहराने के मुहाने पर आ गया है ।
(लेखक हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति रहसचुके हैं)

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