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विपक्षी एकता का ढहता किला — आशीष वशिष्ठ

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इंडी गठबंधन के बारे में राजनीति की समझ रखने वाले अधिकतर व्यक्तियों के अनुमान सही साबित हुए। गठबंधन की पहली बैठक के बाद से ही उसके भविष्य के बारे में जो कुछ कहा जा रहा था, वो शब्दशः धरती पर उतरता दिख रहा है। वास्तव में इंडी नामक विपक्षी गठबंधन में चूंकि वैचारिक साम्यता नहीं है इसीलिए इसकी एकजुटता प्रारंभ से ही संदिग्ध रही है। उससे जुड़े दल मोदी विरोध पर तो एकमत हैं किंतु आपसी विश्वास नजर नहीं आने से एक कदम आगे, दो कदम पीछे वाली स्थिति से घिरे हैं। सीट बंटवारे की वेला समीप आते ही, गठबंधन तिनकों की तरह बिखरता जा रहा है।

भारतीय राजनीति का इतिहास खंगाले तो पिछले 75 वर्षों में न जाने कितने गठबंधन बने और बिखरे, और पुन: बने। चूंकि विपक्ष की नियति टूटने की है, लिहाजा बार-बार गठबंधन करना पड़ता है। यह नियति जनता पार्टी के दौर से कुछ अधिक देखने को देश अभिशप्त है। 2014 में केंद्र में मोदी सरकार के गठन के बाद से हर बीतते वर्ष के साथ विपक्ष की राजनीति की कांति लगातार प्रभावहीन हो रही है। मोदी सरकार के नौ वर्षों के कामकाज के बाद विपक्ष ने बड़ा साहस और शक्ति जुटाकर इस गठबंधन का गठन किया था। गठबंधन के बाद विपक्ष ने मीडिया और प्रचार तंत्र के माध्यमों से ऐसा वातावरण और संदेश देने का काम किया था कि इस गठबंधन के सामने भाजपानीत एनडीए गठबंधन टिक नहीं पाएगा। लेकिन गठबंधन की पहली बैठक के समय से ही जिस तरह की चालाकी और व्यवहार गठबंधन में शामिल घटक दलों के नेता एक दूसरे के साथ कर रहे थे, उससे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इस गठबंधन की आयु दीर्घ नहीं होगी। यह इतनी छोटी होगी कि गठबंधन चुनाव से पहले ही बिखर जाएगा।

विपक्षी गठबंधन अपने अस्तित्व के लगभग सात माह के दौरान चाय-नाश्ते पर बैठकें तो कर सका, लेकिन सीटों के बंटवारे, सचिवालय, संयोजक, साझा न्यूनतम कार्यक्रम, साझा नारा, ध्वज आदि पर आज तक सहमत नहीं कर सका है। पश्चिम बंगाल के अलावा पंजाब ने अलगाव की घोषणा कर दी है। रही-सही कसर बिहार में पूरी हो गई। नीतीश कुमार का इस गठबंधन से अलग होना विपक्ष को सबसे बड़ा झटका है। अब विपक्ष के सामने चुनौती है कि कैसे भाजपा को लगातार तीसरी बार चुनाव जीतने से रोका जाए और तमाम सर्वे कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। ऐसी स्थिति में मोदी का मुकाबला कैसे होगा ये अहम प्रश्न है?

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस और पंजाब में भगवंत मान ने आम आदमी पार्टी की ओर से घोषणा की हैं कि वे अकेले ही सभी सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। कांग्रेस के साथ कोई गठबंधन नहीं होगा। ममता और भगवंत मान दोनों ही अपने-अपने राज्य के मुख्यमंत्री हैं। आश्चर्य यह है कि बंगाल में कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के प्रति अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते रहे हैं। वह छुटभैया नेता नहीं हैं, बल्कि लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता हैं। वह ममता बनर्जी को ‘अवसरवादी नेता’ करार देते रहे हैं और बार-बार बयान देते हैं कि ममता कांग्रेस की कृपा और मदद से ही पहली बार सत्ता में आई थीं। कांग्रेस अकेले ही चुनाव लड़ने में सक्षम है।

ममता गठबंधन की भीतरी राजनीति से क्षुब्ध थीं। उनके प्रत्येक प्रस्ताव को खारिज किया गया। गठबंधन में वाममोर्चे के नेताओं का प्रभाव ज्यादा है और वे हरेक बैठक को ‘तारपीडो’ करते रहे हैं। ममता का आरोप है कि राज्य में कांग्रेस की रैलियां की जा रही हैं। उनके खिलाफ जहर उगला जा रहा है। राहुल गांधी की ‘न्याय यात्रा’ की न तो उन्हें जानकारी दी गई और न ही कोई आमंत्रण मिला। बंगाल में ‘न्याय यात्रा’ और राहुल गांधी के जो पोस्टर लगाए गए थे, ममता की घोषणा के बाद उन्हें फाड़ना शुरू कर दिया गया। दोनों दलों के बीच विषैला अलगाव इस सीमा तक पहुंच चुका है। अंतत: ममता ने फैसला किया कि उनकी तृणमूल कांग्रेस पार्टी, कांग्रेस के साथ, कोई गठबंधन नहीं करेगी और सभी 42 लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी।

हालांकि कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने पार्टी का नरम रुख जताया कि ममता के बिना गठबंधन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। बहरहाल तृणमूल कांग्रेस बंगाल की सबसे मजबूत राजनीतिक ताकत है। 2019 के लोकसभा चुनाव में 43 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल कर उसके 22 उम्मीदवार जीते थे, जबकि कांग्रेस के 5.5 फीसदी वोट के साथ मात्र 2 उम्मीदवार ही संसद तक पहुंच पाए थे। वाममोर्चे को करीब 7.5 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन सांसद के तौर पर ‘शून्य’ ही नसीब हुआ। भाजपा को 40 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे और उसके पहली बार 18 सांसद चुने गए।

पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने कहा है कि पंजाब के सीटों पर किसी से समझौता नहीं होगा। आम आदमी पार्टी ने पंजाब में 13 लोकसभा सीट के लिए करीब 40 उम्मीदवार शार्ट लिस्ट किए हैं।2022 के पंजाब विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने पंजाब में 92 सीटें जीतीं, जबकी 2017 में उसके 20 उम्मीदवार जीते थे। और अब बिहार में इस इंडी महागठबंधन में आई सबसे बड़ी दरार ने पूर्व की राजनीतिक कयासों पर मुहर लगा दी है। ऐसा लगता है इंडी के बाकी घटक ये जान गए हैं कि कांग्रेस नीति और नेतृत्व की दृष्टि से खस्ताहाल में है। ऐसे में वे उसके साथ डूबने की बजाय खुद का बचाव करने की रणनीति पर आगे बढ़ रहे हैं।

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