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शहीद मांगरी उरांव का अनकहा इतिहास और असहयोग आंदोलन

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शोध सार : गाँधीजी के मार्गदर्शन से प्रारंभ असहयोग आंदोलन का गहरा प्रभाव समग्र देश के साथ-साथ पूर्वोत्तर के राज्य असम में भी पड़ा।

सितंबर, 1920 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा आरंभ किए गए इस असहयोग आंदोलन की अवधि फरवरी, 1922 तक मानी जाती है। असहयोग आंदोलन

के माध्यम से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक नए अध्याय का जन्म हुआ। अंग्रेजों द्वारा जलियाँवाला बाग में किया गया हत्याकांड, अत्याचारों

तथा अन्य कारकों के कारण भारतवासियों के मन में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन का भाव जाग्रत हुआ। गाँधीजी के नेतृत्व में संपूर्ण देश में असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन तीव्रता से होने लगा। ये दोनों आंदोलन अहिंसा और असहयोग पर आधारित थे।

सन 1920 में गाँधीजी द्वारा जारी असहयोग आंदोलन के घोषणापत्र के अंतर्गत मुख्यतः निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखा गया था। जैसे-

1. स्वदेशी सिद्धांतों को अपनाएँ

2. हाथ से कटाई और बुनाई सहित स्वदेशी आदतों को स्वीकार करें 

3. समाज से अछूतपन को समाप्त करने का प्रयास

4. मादक पेय सामग्रियों का वर्जन आदि

बीज शब्द: खिलाफत आंदोलन, चाय जनजाति, आदिवासी, स्वाधीनता संग्राम, बुजुर्ग, रैलियाँ।

मूल अंश : इस आंदोलन को सफल बनाने हेतु महात्मा गाँधी ने पूरे भारतवर्ष में विभिन्न जगहों पर कई रैलियाँ और सभाएँ आयोजित कीं।

कोलकाता में शैक्षिक बहिष्कारों को सफल बनाने हेतु सी. आर. दास ने मुख्य भूमिका निभाई। कोलकाता राष्ट्रीय कांग्रेस को सुभाष चंद्र बोस ने प्रमुख नेतृत्व प्रदान किया। इसी तरह असम में चंद्रनाथ शर्मा, त्रिगुणा बरुवा, अंबिकागिरि रायचौधुरी, मुहिबुद्दीन अहमद आदि छात्र नेताओं ने मुख्य भूमिका का पालन किया। इस आंदोलन के दौरान ही असम के चाय बागानों में काम करने वाले

मजदूर हड़ताल पर चले गए थे।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में असम की अन्य महिलाओं की तरह चाय जनजाति की महिलाओं का भी योगदान सराहनीय रहा। सन 1920 में असहयोग आंदोलन के दौरान गाँधीजी ने असम भ्रमण किया, जिसके फलस्वरूप यहाँ की महिलाएँ अंग्रेज विरोधी संग्रामों के प्रति प्रेरित होने लगीं। असम में चाय जनजाति के सभी पुरुष- महिलाओं इस आंदोलन में जोर-शोर से भाग लिया।

स्वतंत्रता की वाणियों ने चाय जनजाति के अनपढ़ श्रमिकों के मन भी देश को अंग्रेजों से आजाद कराने की सोच को प्रोत्साहित किया। असम प्रदेश में असहयोग आंदोलन के प्रवाह ने जिस तरह गति की, उस पर अपना आशय व्यक्त करते हुए चक्रवर्ती राजा गोपालचारी ने कहा है, भारत के अन्य प्रदेशों में भी यदि असम की तरह साहसी और विश्वासी नौजवान रहते तो अति कम दिन में ही भारतवर्ष अपना लक्ष्य प्राप्त कर पाता।” इसी असहयोग आंदोलन में भाग लेते हुए अंग्रेजों के हाथों प्राण त्याग करने वाली मांगरी उरांव को असम की पहली महिला शहीद होने का दावा किया गया है।

प्रस्तुत आलेख का शीर्षक ‘मांगरी उरांव का अनकहा इतिहास’ होना भी इस उद्देश्य की पूर्ति करता है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों के सूची में कहीं भी मांगरी उरांव के नाम उल्लेख नहीं है तथा जितनी सम्मान उन्हें मिलना चाहिए था, वह आज भी उपेक्षित है।

मांगरी उरांव उर्फ मालती मैम असम की पहली

महिला शहीद हैं, जिन्होंने गाँधीजी द्वारा परिचालित असहयोग आंदोलन में खुद को न्योछावर करते हुए आत्मबलिदान दिया। मांगरी उरांव का जन्म हजारीबाग के पहाड़ी गाँव में एक गरीब आदिवासी परिवार में हुआ

था। बड़ी होने के बाद मांगरी ने छोमरा नामक एक लड़के से भाग कर विवाह कर लिया। इसी समय अंग्रेज ठेकेदार भारतवर्ष के विभिन्न आदिवासी गाँवों से लोगों को लालच दिखाकर असम के चाय बागानों में काम करने के लिए लाते रहे। मांगरी और छोमरा इसी प्रलोभन का शिकार बने तथा जलमार्ग से असम पहुँचे।

इसके पश्चात मांगरी और छोमरा अंग्रेजों के अधीन होकर असम के चाय बागान में मजदूरी करने लगे। कुछ ही महीने बाद मांगरी का पति छोमरा बीमार होने लगा और यथोचित चिकित्सा के अभाव में उसका देहांत हो गया।

इस अनजान जगह पर मांगरी स्वयं को अकेला महसूस करने लगी। अतः बगान के एक बुजुर्ग की सलाह से पुनः विवाह करने हेतु सहमत हुई। द्वितीय विवाह के प्रसंग में लछमन नामक बुजुर्ग ने अपनी बेटी जैसी मांगरी का हाथ एक अंग्रेज साहब के हाथ में थमा दिया

ताकि मांगरी अपना शेष जीवन सुख और समृद्धि के साथ व्यतीत कर पाए। उसी दिन से मांगरी उरांव मालती मैम बन गई। मांगरी का जीवन खुशहाली से भर गया। वह बागान की कुटिया के विपरीत महल में रहने लगी,

मजदूरी के विपरीत मैम बन के रही। मांगरी ने तीन पुत्र संतानों को जन्म दिया, परंतु दुर्भाग्यवश एक भी संतान मांगरी के पास नहीं रही। उज्ज्वल भविष्य के बहाने अंग्रेज साहब ने मांगरी की तीनों संतानों को उससे दूर कर दिया। अंग्रेज साहब ने बताया कि बच्चों को मिशनरी में रखा गया है। अंग्रेज साहब के इस षड्यंत्र से तीनों पुत्र अपनी माँ से दूर हो

गए तथा मांगरी माँ होते हुए भी संतानहीनता से ग्रस्त रही। इसके पश्चात अंग्रेज साहब एक दिन विदेश चले गए और जाते समय मांगरी को लालबस्ती में एक घर दे गए। कुछ दिन पश्चात वही साहब एक विलायती महिला के साथ वापस आए और तब मांगरी को महसूस हुआ

कि अंग्रेज साहब उसे केवल भोग की सामग्री ही समझता रहा। इस घटनाक्रम से मांगरी के हृदय में अंग्रेजों के प्रति विरक्ति का भाव उत्पन्न हुआ। आर्थिक तनाव तथा मानसिक अस्थिरता की त्रासदी से मांगरी पूरी तरह टूट गई। हालात ये बन गए कि हर तरह से निराश-परेशान

मांगरी उरांव लालबस्ती का घर छोड़कर सुबह-शाम शराब के नशा में रहने लगी।

19वीं शताब्दी में असम में अधिकतर युवा शराब और अफीम के नशे में स्वयं के साथ ही अपने घर का भी नाश कर चुके थे। नशे की लत लगने के कारण घर की जमीन, बर्तन आदि बेचे गए या गिरवी रखे गए।

इससे कई घर-परिवार बिखर चुके थे। इस भयावह परिस्थिति से निजात पाने के लिए असम में विभिन्न जगहों पर लोग लामबंद होकर और अंग्रेजों के खिलाफ मुखर हुए। लोगों ने नशे के व्यापार के खिलाफ आवाज

उठाई। इस क्रम में मादक द्रव्य विक्रेताओं के विरोध में नारा लगे, हड़ताल शुरू किए गए। 2 अप्रैल, 1921 को तेजपुर शहर के नेपालीपट्टी में ‘लोकनायक’ अमिय कुमार दास और ‘देशप्राण’ लक्ष्मीधर शर्मा की अगुवाई में

राष्ट्रीय कांग्रेस शराब की दुकानों के सामने धरना दे रही थी। उसी समय हाथ में नशे में चूर मांगरी हाथ में शराब की बोतल थामे आंदोलनकारियों के सामने से गुजरी।

तभी आंदोलनकारियों में शामिल एक लड़के ने मांगरी को ‘माँ’ संबोधित करते हुए पूछा, दोपहर में ही भला क्यों शराब पीकर भटक रही हैं। लड़के के मुँह से ‘माँ’ शब्द सुनते ही मांगरी का हृदय भावविभोर हो उठा और शराब की बोतल वहीं जमीन पर पटक कर शपथ ली कि वह और कभी भी नशा नहीं करेगी। इसके बाद वह

मादक द्रव्य विरोधी आंदोलन से जुड़ गई।

असहयोग आंदोलन में मांगरी उरांव सक्रियता से काम कर रही थीं। सन 1921 में अंग्रेजी गोली का शिकार हो गईं और अपने प्राण त्याग दिए। यह असम की पहली ऐसी घटना थी, जिसमें कोई महिला शहीद हुई थी। इसलिए मांगरी उरांव को स्वाधीनता आंदोलन

की असम की पहली महिला शहीद बनीं, लेकिन दुर्भाग्यवश उनके बलिदान को वह सम्मान आज तक नहीं मिला, जिसकी वह हकदार हैं।

सन 1969 में भारत सरकार द्वारा प्रकाशित ग्रंथ Who’s who of Indian Martyrs में स्वाधीनता आंदोलन में शहीद 41 वीर वीरांगनाओं का संक्षिप्त विवरण दिया

गया है, जिसमें असम के चार शहीदों के बारे में उल्लेख किया गया है। परंतु मांगरी उरांव के संबंध में भारत सरकार के उक्त ग्रंथ में कोई उल्लेख नहीं है। सन 1979 में असम सरकार ने ‘मुक्तिजुजारूर अनुसंधान समितिर

प्रतिवेदन’ नामक एक पुस्तिका का प्रकाशन करवाया, जिसमें स्वाधीनता संग्राम में प्राण देने वाले पाँच महिला शहीदों के साथ कुल 29 शहीदों का विवरण मिलता है।

परंतु असम सरकार द्वारा प्रकाशित इस प्रतिवेदन में भी शहीद मांगरी उरांव की उपेक्षा की गई है। सन 1984 में National Archieves of India द्वारा प्रकाशित पुस्तक Women in India’s Freedom Struggle में भी स्वतंत्रता संग्राम में शहीद भारतीय महिला शहीदों के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है, हालाँकि इसमें भी

मांगरी उरांव उर्फ मालती मैम का उल्लेख नहीं किया गया। सरकार, लेखक तथा इतिहास लेखकों की नजर में मांगरी के प्रति यह उपेक्षा उनके आदिवासी होने के

कारण है तो यह बड़ी विडंबना की बात है।

सन 1921 में असम की शहीद होने वाली प्रथम महिला मांगरी उरांव को अधिकांश लोग नहीं जानते हैं।

मांगरी उरांव को आज स्वाधीनता प्राप्ति के 75 वर्षों बाद भी जिस सम्मान से सम्मानित किया जाना चाहिए था, वह नहीं के बराबर है। ‘लोकनायक’ अमिय कुमार दासजी ने ‘मांगरी उरांव के जीवन चरित’ नामक ग्रंथ में तथा

सन 1969 के जुलाई महीने में प्रकाशित ‘चाय मजदूर’ नमक समाचारपत्र में ‘उति अहा एपाही फूल- मांगरी’ नाम से एक आलेख में विस्तृत विवरण दिया गया है।

दास जी ने लिखा है कि “मांगरी को ज्यादा दिनों तक जीवित रहने का अवसर नहीं मिला। असहयोग आंदोलन के विभिन्न कार्यक्रम में व्यस्त रहने के समय में ही एक दिन सुनने को मिला कि मालती मैम का खून हो गया।

न जाने कहाँ से बहते आए एक फूल मांगरी को इस तरह शहीद होना पड़ा।” इसके पश्चात लेखिका डॉ. दीप्ति शर्मा ने 1988 में प्रकाशित पत्रिका ‘प्रांतिक’ के 16-30 नवंबर अंक में ‘भारतर स्वाधीनता संग्रामत असमर महिला शहीद’ (भारतीय स्वाधीनता संग्राम में असम की महिला शहीद) नाम से एक आलेख में मांगरी उरांव के संबंध में गहराई से अवलोकन किया है। डॉ. दीप्ति शर्मा के इस महान प्रयास से ही मांगरी उरांव का जीवनवृत्त थोड़ा- बहुत लोगों के समक्ष उभरकर आया। इसके उपरांत मांगरी उरांव संबंधित विभिन्न आलेख बीच-बीच में स्मृतिग्रंथ, अखबार आदि में आते रहते हैं। जैसे सन 1994 की फरवरी में ढेकियाजुली में आयोजित असम चाय जनजाति युवा संस्था के राज्य अधिवेशन में प्रकाशित ‘जिनगानी’ स्मृतिग्रंथ में मांगरी के बारे में लिखा गया है।

डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के

विभागाध्यक्ष डॉ. स्वर्णलता बरुवा और इतिहास विभाग के अध्यापक डॉ. डंबरूधर नाथ ने भी मालती मैम के बारे में अपनी इतिहास की पुस्तक में उल्लेख किया है।

वे लिखते हैं कि “महात्मा गाँधी जी के असम भ्रमण ने महिलाओं को भी संग्रामी होने का उत्साह प्रदान किया था, जिससे महिलाओं ने घर में ही बुनाई का काम शुरू किया था, जो कि असहयोग आंदोलन का एक महत्वपूर्ण

अंग था। इसी समय में चाय बागानों में श्रमिक आंदोलन हुआ, जिसमें महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।

सन 1921 में भाँग, गाँजा, शराब आदि मादक द्रव्य बहिष्कार के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई।

उल्लेखनीय है कि इसी आंदोलन में दरंग जिला में स्थित लालमाटि चाय बागान की निवासी श्रीमती मांगरी उरांव उर्फ ‘मालती मैम’ नामक एक महिला को पुलिस के

हाथों प्राण गँवाने पड़े। संभवतः मांगरी ही असम के स्वतंत्रता संग्राम में शहीद प्रथम महिला है।” इसके अलावा लेखिका दिप्तीरानी सइकिया चांगमाय, डॉ. सागर बरुवा, बिटूल कुर्मी तथा सुशील कुर्मी आदि ने मांगरी उरांव उर्फ मालती मैम के संबंध में लेख,पुस्तक आदि प्रकाशित करवाया है। 1921 में शहीद

हुई मांगरी उरांव जैसी वीरांगना के जीवन संबंधी तथ्यों को संचित करना आवश्यक है। इससे न सिर्फ  मांगरी उरांव को उचित सम्मान मिलेगा, बल्कि इतिहास में बिसराए गईं मांगरी जैसी वीरांगनाओं के बारे में

जानने की इच्छा भी जगेगी।

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