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काशी यात्रा- ‘कौन सो संकट’ – डाक्टर श्रीधर द्विवेदी

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बनारस मेरी बहुत बड़ी दुर्बलता है। मेरा श्रेय – प्रेय , पथ – पाथेय बहुत कुछ है। वहां जाने का कोई भी अवसर मिले और मैं न पहुंचू यह सामान्यतया संभव नहीं। कोरोना महामारी ने अलबत्ता इस मोह पर विराट विराम लगा दिया था। अब जब कोरोना का प्रकोप थमता नजर आ रहा है और हम कोरोना का प्रतिरोधी टीका कोवीशिल्ड की दोनों सुईया लगवाकर अपेक्षाकृत भयमुक्त हो चुके थे तब राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान अकादमी के वार्षिक सम्मेलन , २६ – २९ दिसंबर , २०२१ में टेलीमेडिसिन पर आयोजित संगोष्ठी में सहभागिता का सुअवसर मिला तो पति -पत्नी हम दोनों ने बनारस जाने का पूरा मन बना लिया। मेरी सहधर्मिणी यद्यपि घुटनों से अशक्त थी फिर भी अपनी आस्तिकता और बाबा विश्वनाथ के दर्शन – पूजन तथा संकटमोचन के दर्शन-पूजन के लोभ वश उन्होंने बनारस चलने की स्वीकृति दे दी।

हम लोग २६ नवम्बर की रात वायुयान से बनारस पहुँच गये और सीधे अपने गंतव्य काशी हिन्दू विश्वविद्यालय परिसर चले गये। विश्वविद्यालय पहुँचते ही आत्मीयता की जो आनंदानुभूति हुई वह अवर्णनातीत थी। लगता था अपनी मिटटी की सुगन्धि में फिर लिपट गया हूँ। विश्वविद्यालय के लक्ष्मणदास अतिथिगृह में शरण मिली। प्रातःकाल उठ कर हम लोग सीधे विश्वनाथजी के दर्शन हेतु निकल पड़े। ज्ञानवापी द्वार पर जाकर अपने वाहन से उतर गए। अर्धांगिनी घुटनों में भयंकर कष्ट के चलते ज्यादा चल नहीं सकती थी। सीढ़ियां उतरना तो बहुत दूर की बात थी। इसलिये पहियेदार कुर्सी की तलाश करने लगा। पता चला उसके प्रबंधन में काफी देर लगेगी तब तक भीड़ – भाड़ ज्यादा बढ़ जायेगी। अतएव साहस बटोर कर बाबा का स्मरण कर – ‘जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे ‘ सोचकर बाबा के पास पहुंचने का मन बना लिया। मेरे साथ चल रहे एक स्थानीय मित्र ने ‘ हटो – बढ़ो’ का उद्घोष कर मंदिर के गर्भ गृह द्वार तक पहुंचा दिया । अपार उमड़ती हुए जन समूह को देख कर शान्ति व्यवस्था बनी रहे इसलिये वहां सुरक्षा व्यवस्था में लगे पुलिस के जवान पंडों की भांति बाहें चढ़ा कर पैंट ऊपर कर लोगों को कुछ सेकेण्ड ही शिवलिंग दर्शन का समय दे रहे थे। अतीव भीड़-भाड़ और त्वरा बीच हम दोनों किसी प्रकार बाबा के भरपूर दर्शन कर सके। प्रार्थना कर सके। मुख्य आसन पर विराजमान पंडित जी ने मेरे ललाट पर प्रभूत भभूत और चन्दन लगाया।

लौटेते समय यह महज संयोग था या बाबा की अहैतुकी कृपा कि उनके मुख्य पुजारी श्री श्रीकांत मिश्र जी रास्ते में मिल गये | गौर वर्ण , प्रशस्त ललाट , उस पर भभूत -चन्दन का लेप , कुंतल केश राशि आँखें कुछ उनींदी सी , हाथों में मोबाईल धोती -कुर्ता , और भली प्रकार ओढ़ा हुआ उत्तरीय तथा गुरु गंभीर वाणी | साथ चल रहे मेरे मित्र ने जब उनसे मेरा परिचय कराया और पूर्व में सर सुंदरलाल अस्पताल में मेरी सेवाओं का उल्लेख किया तो उन्होंने बड़े स्नेह भाव से मेरा अभिवादन किया । मैंने भी उस असीम मूर्ति को प्रणाम किया और आगे बढ़ गया ।

मंदिर का पूरा प्रांगण और उसका कण कण बाबा विश्वनाथ की महिमा से गुंजित था | मंदिर परिसर में कतार में खड़े श्रद्धालु पूरे भारत की मनोहारी छवि प्रस्तुत कर रहे थे | काशी वासियों के अतिरिक्त तमिल, कन्नड़, झारखंड, पंजाब, हिमाचल, राजस्थान से आये लोग अपनी पारम्परिक वेशभूषा और क्षेत्रीय भाषा में परस्पर संवाद करते हुए किसी पण्डे- पंडित के साथ हाथों में दूध, गंगाजल, विल्व पत्र, मिष्ठान्न ,बिंदी या कोई उपवस्त्र लिए हुये लम्बी कतार में खड़े हुये बाबा विश्वनाथ के दरबार की ओर गर्भ गृह की तरफ बढ़ रहे थे। जो भक्त दर्शन कर चुके थे उनके चेहरे पर हर्षोल्लास था। सत्पुण्य संचित करने का भाव था ।
के बावजूद मंदिर परिसर की स्वच्छता,  शान्ति,  प्रशस्तता पहले की अपेक्षा कई गुणा प्रशंसनीय थी । सब प्रसन्न थे केवल कुछ स्वार्थी पण्डे, स्थानीय दुकानदारों को छोड़ कर क्योंकि अब उनकी खुले आम लूट बंद हो चुकी थी।
इतनी बहुलता, उनके पाखंड और झूठ पर काफी हद तक लगाम लग चुकी थी । इस प्रकार पूरी हुयी हमारी अविस्मरणीय विश्वनाथ धाम यात्रा।

अब क्रम था कपिश्रेष्ठ संकटमोचन के धाम में प्रणत निवेदन का | शनिवार होने के कारण काफी भीड़ भाड़ का दिन था । मन में लम्बी लम्बी कतार की स्मृतियाँ थी । इसलिये अपने अस्थायी निवास से प्रातः छह बजे ही निकल पड़ा ।
विश्वविद्यालय के सिंहद्वार पर महामना की श्रीमूर्ति को प्रणाम कर वहां से मंदिर तक जाने और फिर वापस आने का थ्री व्हीलर कर हम लोग मंदिर पहुंचे | रास्ते भर लंका बाजार के दोनों और के परिवर्तित भूगोल का आनंद लेते हुये, लोगो की
मस्ती -बेतकल्लुफी और सुर्ती -पान के प्रति चिर परिचित आसक्ति की झलक देखते हुये संकट मोचन मंदिर तक पहुंच गया। मंदिर द्वार पर श्रद्धावनत सुमास्क होकर अंदर प्रवेश किया | चप्पलें बाहर ही उतार दी मोबाईल, चश्मा, पेन, कंघी कुछ भी अंदर ले जाने की अनुमति नहीं थी | मंदिर के अंदर से ही फूल, माला व बेसन का लड्डू -प्रसाद लेकर कतारबद्ध होकर आगे बढ़ते रहिये । माला -फूल ,प्रसाद लेकर अंदर पंहुचा | लोग कतारबद्ध थे । इस लाइन में केवल दर्शन होता है । प्रसाद अर्पित करने का विधान दूसरी जगह पर था | लाइन में लगते ही श्रद्धा का संचार और आस्था का अविरल प्रवाह स्वयं होने लगता है। सभी उम्र ,अवस्था के लोग थे । वृद्ध है चश्मा लगा हुआ है। छड़ी लिए हुए है। शाल से मुंह नाक ढका हुआ है । बाबा, बाबा हे बाबा कह रहें हैं । कोई माँ अपने नवजात शिशु को दर्शन कराने और बाबा का आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु लायी हुयी है। एक बूढ़ा भक्त सौभद्र महिला से कह रहा है बचवा को इस ठण्ड में लेकर चली आईं बाटी | कई भक्तगण मंदिर के कोनों कोनों में चारो और हनुमान चालीसा या सुंदरकांड का पाठ कर रहे हैं ।

महिलायें भी इस पाठ – उपासना में पीछे नहीं है । एक महिला ने केश राशि के बीचों बीच ललाट से लेकर पश्च कपाल तक सिंदूर लगाया हुआ था । आजकल के इस प्रतीकात्मक सिंदूर युग में ऐसा दृश्य केवल संकटमोचन में ही मिल सकता है। भगवान संकटमोचन के ठीक सामने राम जी का मंदिर है । प्रभु राम लक्ष्मण सीता के श्री विग्रह हैं ।
वहां अनवरत सीताराम सीताराम की धुन हो रही हैं हैं । घंटी बज रही हैं । हाथों में प्रसाद -फूल की माला | मुंह पर जय सियाराम जय सिया राम का अनवरत पाठ । हे नाथ नारायण बासुदेव तो कोई भगवान राम का गुणानुवाद अपनी करतल ध्वनि से व्यक्त कर रहा हैं। एक बच्चा किलकारी मार रहा हैं । भाग रहा है | माता – पिता पीछे पीछे उसे पकड़ने
का यत्न कर रहें है । यह दृश्य मुझे रामचरितमानस के बालकाण्ड का सहज स्मरण करा देता है – ‘ठुमुकि ठुमुकि प्रभु चलहिं पराई’ (२०२ दोहा / ७वीं चौपाई ।

श्रीराम मंदिर से होकर पुनः हनुमान जी की प्रदक्षिणा के लिये मुड़ा तो माला – फूल-प्रसाद अर्पित करने के लिये दो अलग पटल थे वहां दो पुजारी आसीन थे। उनमें से एक ने मुझे मेरी आवाज से पहचान लिया- अरे डाक्टर साहब बहुत दिन बाद आये। कुशल क्षेम का आदान -प्रदान हुआ। बात हो ही रही थी कि प्रधान पुजारी जी दृष्टिगत हुये। काया तो वही थी जो आज के बीस वर्ष पूर्व मैंने देखी थी परन्तु चलते समय उनकी कमर टेढ़ी हो जाती थी। मेरे पास आये तो मैंने पूछा तब उन्होंने बताया कि विगत तीन -चार वर्षों से कमर में दर्द होता है। घुटने भी कमजोर हो गये हैं। दाहिना हाथ कांपता रहता है। मैंने ध्यान से देखा जब उनका दाहिना हाथ देखा तो उसमें कम्पन स्पष्ट दिख रहा था। हाथ फैलाने -हिलाने पर कम्पन और तीव्र और मुखर हो जाता था । उन्हें डायबिटीज या थायरॉयड जैसी कोई बीमारी नहीं थी। मुझे यह ‘ पार्किन्सोनिज्म ‘ के लक्षण लगे। परन्तु उनकी उम्र ४५ -५० के करीब थी। यह थोड़ी कम उम्र थी पार्किन्सोनिज्म के लिये। मैंने उनसे पूछा किसी को दिखाया ? इस धाम में तो दर्जनों चिकित्सक रोज आते होंगे। उनमें से बहुत लोग विषय के निष्णात चिकित्सक होंगे। पूछने पर पुजारी जी ने मस्तिष्क का एम आर आई होने की भी बात बताई। पर वह उस समय घर पर था। मुझे अंदर ही अंदर बहुत बेचैनी का अनुभव हो रहा था। ये कैसे सुबह शाम भगवान की आरती करते होंगे ? आरती की अवधि प्रायः आधे घंटे की होती है। इनके लिये कितना कष्ट साध्य होता होगा वह काल । मैंने उनसे निवेदन किया कि आप अपनी पूरी रिपोर्ट मुझे पोस्ट द्वारा भेज दें। तब मै आपकी थोड़ी बहुत सहायता कर सकूँ। मैंने यह भी कहा आप दवाई के साथ साथ प्रभु से यह प्रार्थना अवश्य करें कि आपका यह संकट शीघ्र दूर करें –
‘कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसे नहीं जात है टारो’। प्रार्थना में बहुत बल होता है। मेरी ऐसी मान्यता है। इसी प्रबल विश्वास के वशीभूत मैंने पुजारी जी से कहा आप दवाई के साथ साथ भगवान संकटमोचन से यह प्रार्थना अवश्य करें कि
आपका यह संकट दूर करें । बड़े आर्तभाव से यह निवेदन कर अपने प्रवास गंतव्य की ओर लौट पड़ा।

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