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गजल

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सुलगते सुलगते हम
करार नहीं मिलता मेरी बेचैनियों को, बेशक खाक हो रहे हैं सुलगते सुलगते हम
आलम तो देखिए मेरी पेचीदगियों का ,और भी उलझ रहे हैं सुलझते सुलझते हम
सुना था बीतेगी बड़ी शान से, बस,अगले मील  के परे
उम्र गुजर गई यूं ही , देखा करे मील के पत्थर गुजरते गुजरते हम
खलिश, रंज, कसक, ख्वाहिश फड़फड़ा रहे हैं अब तलक
समेटे जा रहे हैं इनका दायरा, उम्र के चढ़ाव से उतरते उतरते हम
काटा हुआ सब बोने को दिल है ,पाया हुआ अब खोने को दिल है
मगर दुनिया कह रही है,  बिगड़े जा रहे हैं सुधरते सुधरते हम
हिसाब में कच्चे रहे होंगे या अक्लमंदी से कोसों परे
दो चार ढंग के लम्हे ही ले सके, वक्त के पहाड़ से कुतरते कुतरते हम
 खाक हो रहे हैं सुलगते सुलगते हम
 खाक हो रहे हैं सुलगते सुलगते हम

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