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मतांतरित जनजाति वर्ग को अनुसूचित जनजातियों की सूची से बाहर किया जाए- विहिप

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भारत में हिंदू समाज हमेशा से अपनी सुविधा, आवश्यकता व परंपरा के अनुसार नगरों, ग्रामों या वनों में रहता रहा है। भारत की आध्यात्मिक परंपरा के अनुसार सबकी आराधना पद्धति में विविधता रही है परंतु इनमें अंतर्निहित एकता हमेशा से रही है। ज्ञान पर किसी का एकाधिकार नहीं रहा। इसलिए वनों में रहने वालों द्वारा रचे गए वैदिक साहित्य को अरण्यक कहा गया। नैमिषारण्य जैसे विहंगम वनों में अनेक ऋषि, महर्षि हुए जिनमें अद्भुत शास्त्रार्थ होते थे और स्थानीय वनवासी उनमें सहभागी होते थे। निषादराज केवट, शबरी, हनुमान, जामवंत, जटायु, नल-नील जैसों के संवाद किसी ऋषि मुनि के संवाद जैसे ही थे। इसी प्रकार भीम पुत्र घटोत्कच, अर्जुन पुत्र बब्रुवाहन के वंशजों के राज्य का इतिहास तो 18वीं सदी तक मिलता है।
अपने देश और धर्म की रक्षा लिए सतत संघर्ष और बलिदान का गौरवपूर्ण इतिहास जनजातीय समाज का रहा है। बप्पा रावल, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी के संघर्ष में जनजातियों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
इसी प्रकार जब ईसाई पादरी अंग्रेज, पुर्तगाली, फ्रेंच व डच आक्रमणकारियों के सहयोग से इनको मतांतरित करने का प्रयास कर रहे थे तब उनको भी सतत संघर्ष का सामना करना पड़ा। 250 वर्षों में हजारों पादरियों के द्वारा अरबों डॉलर खर्च करने के बावजूद वे केवल 18 प्रतिशत जनजातियों को ही मतांतरित कर पाए। इसका कारण अपने धर्म और परंपरा के प्रति जनजाति समाज की अटूट निष्ठा और आस्था रही है। ताना भगत, भगवान बिरसा मुंडा, रानी गाईदिल्यु, भीम गोंड, लक्ष्मण नायक, सिद्धू-कान्हू, टाट्या भील, राणा पुंजा भील और गोविंद गुरू जैसे महान नायकों के नेतृत्व में संपूर्ण देश के जनजातीय क्षेत्रों में मिशनरियों व मुस्लिम आक्रमण कारियों के विरुद्ध लगातार संघर्ष चलते रहे। अपने छल, कपट और प्रलोभन में जब चर्च असफल रहा, तब इन्होंने इनमें भेद निर्माण करने के लिए विभिन्न प्रकार की अनुसूचित जनजातियों को हिन्दू समाज से पृथक करने के लिए उनमें अलगाव का भाव पैदा करने का प्रयास किया। इसके अलावा कई प्रकार के नए छल कपट जैसे भगवा वस्त्र धारण करना, चर्च को धाम कहना, बालकृष्ण रूप में यीशु को प्रस्तुत करना आदि प्रयास करते रहे। मतांतरण के षड्यंत्र में बाधा बनने वाले स्वामी लक्ष्मणानंद और स्वामी शान्तिकाली जैसेपूज्य संतों की निर्मम हत्याएं भी चर्च के द्वारा उत्पन्न वातावरण के कारण ही हुई हैं।
अनुसूचित जातियों के संबंध में भारतीय संविधान में ही स्पष्ट है कि ईसाई अथवा मुसलमान बनने के बाद
अनुसूचित जातियों को दिए गए आरक्षण एवं अन्य लाभ वे प्राप्त नहीं कर सकेंगे। यह एक प्रकार का संवैधानिक संरक्षण है। दुर्भाग्य से यह संरक्षण जनजातियों को अभी तक प्राप्त नहीं हो सका है। इसके कारण मतांतरित ईसाई व मुस्लिम आदिवासी अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यक दोनों प्रावधानों का लाभ उठा रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार 18 प्रतिशत मतांतरित जनजाति आरक्षण का 70 प्रतिशत लाभ उठा रहे हैं और 82 प्रतिशत सच्चे जनजाति केवल 30 प्रतिशत भाग ले पा रहे हैं। यह स्थिति बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। इसीलिए उच्चतम न्यायालय ने केरल बनाम मोहनन के मामले में निर्णय देते हुए यह स्पष्ट कर दिया था कि यदि जनजाति का कोई व्यक्ति अपने मूल धर्म त्याग कर दूसरा धर्ग अपनालेता है और अपनी परम्पराएं, रीति-रिवाज, पूजा-पद्धति एवं संस्कारों को छोड़ देता है तो वह जनजाति नहीं माना जाएगा। इस विषय पर चिंता करते हुए 1967 में तत्कालीन जनजाति नेता स्वर्गीय कार्तिक उरांव ने तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी को एक ज्ञापन दिया था जिसमें लोकसभा के 348 सदस्यों के हस्ताक्षर थे। इस ज्ञापन में उन्होंने 1950 के राष्ट्रपति के आदेश में संशोधन कर जनजाति समाज के धर्मातरण लोगों को अनुसूचित जनजाति की सूची से हटाने की मांग की थी। बाद में उन्होंने इस संबंध में लोकसभा में एक निजी बिल भी रखा था। स्पष्ट ही है कि जनजाति के जो लोग धर्मातरण करते हैं वे अपने देवी-देवताओं, पूजा-पद्धति, परंपरा, श्रद्धाओं व संस्कृति का परित्याग कर देते हैं। उन्हें जनजाति समाज का भाग नहीं माना जा सकता है।
आज ईसाइयों व मुसलमानों के बढ़ते हुए षड्यंत्र और उनकी व्यापकता को देखते हुए विश्व हिन्दू परिषद केंद्र सरकार से यह मांग करती है कि संविधान में आवश्यक संशोधन करके मतांतरित जनजातीय समाज को जनजातियों की सूची से बाहर करना चाहिए जिससे वास्तविक जनजातियों को अपने अधिकार मिल सके। यह विषय न केवल मूल जनजातियों के हित में है बल्कि व्यापक रूप से राष्ट्रहित में भी है।
प्रस्तावक : डॉ० गिरीश भाई नलवाया, दाहोद-द0 गुजरात
अनुमोदक : बंसीधर उरांव, अम्बिकापुर-छत्तीसगढ़

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