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शमा के पास परवान आया है उसे बाती ने बुलाया है — आनंद शास्त्री

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प्यारे मित्रो ! विगत जन्मों से आने वाले जन्मों तक एक सच्चे साधक की यही अंतर्कथा होती है कि-
“यूँ ही नहीं होती अंधेरों में रौशनी।
खुद को जला जलाकर सितारे हुवे हैं हम॥”
यह शरीर भी एक दीपक की बाती है जो निरन्तर जलते जलते धीरे-धीरे भष्म हो जाती है ! आज तुम सबसे-“अनहद नाद” पर चर्चा करने की इच्छा है ! कुछ अनुभवी सिद्ध योगी जन कहते हैं कि-“अ—न—–हद” अर्थात –“ॐ—न—हद” जिस ॐ अंतर्ध्वनि की कोई भी सीमा न हो ! निरन्तर भ्रामरी गीत की तरह जो ॐऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ  चलता ही रहता है ! भीतर से बाहर तक आसपास के समूचे स्थान को अपनी गूंज से गुंजायमान कर देता है ! वो अनहद नाद है ! इसे ही-“अनाहत” भी कहते हैं क्योंकि बिना दो वस्तुओं की आपस में टक्कर हुवे शब्द अर्थात ध्वनि प्रकट नहीं हो सकती इसी हेतु इसे-“आहत ध्वनि” कह सकते हैं किन्तु जो बिना किसी टक्कर के -“ॐ—न—आहत” ध्वनि होती है उसे-“अनाहत” कहते हैं।
यहाँ एक अद्वितीय विषय के विष्लेषण की आवश्यकता है कि-“स्त्री और पुरुष” यह एक इकाई है ! स्त्री पुरुष के बिना अधूरी है और पुरुष स्त्री के बिना अधूरा ! इसी हेतु इसे- “अर्धनारीश्वर” अथवा-“अर्धनारिनाटकेश्वर” भी कह सकते हैं !  जैसे भूमिकम्प होता है अर्थात पृथ्वी के भीतर कोई खण्ड किसी खण्ड से टकराता है जिससे-“कम्पन”होता है।
कुछ अनसुलझी पहेलियां हैं आप सभी के मन में ! उनके होंने का कारण चंचलता एवं चपलता है ! इसे समझने की आवश्यकता है कि स्त्री और पुरूष अर्थात धरती और आकाश ! एक बिलकुल ही स्थूल और दूसरा -“अवकाश” ! इसे समझने की फिर से कोशिश करो आप ! स्थूल को रहने के लिये अवकाश की आवश्यकता है ! यह स्थूल अवकाश अर्थात आकाश में जन्मता है आकाश मे जीवन जीता है और अंततः आकाश में ही समा जाता है ! अर्थात-“धरती-स्त्री” आकाश अर्थात-“पुरुष” से ! पुरुष में ! पुरुष में अपने अस्तित्व की तलाश हेतु” जन्म लेती है ! पलती है और पुनश्च अन्य बहुत सारी पृथ्वियों को अपने अस्तित्व से प्रकाशित कर पुनश्च उनमें ही समा जाती है।
अर्थात आप सभी पृथ्वी हो ! आप सभी स्त्री हो ! पुरुष केवल एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अर्थात आकाश के अतिरिक्त दूसरा है ही नहीं -“एकोब्रम्हः द्वितीयोनास्ति” और यह पृथ्वी अर्थात आप सब का वास्तविक स्वरूप-“नाद” है ! यह गगन के भीतर अर्थात शरीर के भीतर-बाहर जहाँ भी-“रिक्तता” है वहीं यह गूंज रहा है ! अर्थात दो टुकड़ों को एक होने को बुला रहा है ! बिलकुल वैसे ही जैसे कि समुद्र की लहेरों से लकडी के दो टुकड़े मिलते हैं और पुनश्च अलग-अलग हो जाते हैं –
“पत्ता टूटा डाल से ले गया पवन उडाय।
बिछुडे कबहुँ ना मिलैं जो बिछुडे एक बार॥”
एक और बात है-
“शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा ।
उहापोहोर्थ विज्ञानं तत्वज्ञानं च धीगुणा:॥”
श्रवण करने की इच्छा होना और गहरी इच्छा होना, प्रत्यक्ष में श्रवण करना, इसके उपरान्त श्रवण करके उसे ग्रहण करना अर्थात मनन करते हुवे उस पर गम्भीरता से विचार करना,उसे स्मरण में रखना, तर्कर्वितर्क के द्वारा निश्चित करना, सिद्धान्त का निश्चय, तदोपरान्त उसका अर्थज्ञान तथा अंततः तत्वज्ञान ये बुद्धी के आठ अंग हैं।
अर्थात प्रकारान्तर से -“बुद्धि” ही भूमि है अर्थात उपरोक्त आठ अंग ही अष्टधा-प्रकृति कहे गये हैं।
यही आठों अंग एक दुसरे के पश्चात अर्थात क्रमानुसार एक दूसरे का अधिग्रहण करते हुवे अंततः-“चित्त” बन जाते हैं ! और इनके चित्त बनते ही अर्थात अष्टधा बुद्धि जैसे ही चित्त के संग मिलती है अथवा आप यूँ कहें तो अधिक उचित होगा कि इन आठों के समूह का नाम-“चित्त” है !
समस्या यहाँ आ जाती है  सद्गुरु वचनों में चित्त लगते ही उच्चाटित होने लगता है ! उसे लगता है कि ये सब तो जान लिया ! अब गुरू की आवश्यकता क्यों ? इसे कहते हैं चित्त से- “अहंकार” प्रकट होता है ! और यही-“अंतःकरण” कहलाने लगता है !
प्यारे मित्रों ! वस्तुतः देह भाव होना ही अहंकार है ! देहाध्यास अर्थात हमने अपनी देह से चलने का कृतिम अभ्यास कर लिया है ! यह कृतिम इसलिए है क्योंकि देह से हजारों हजार गुना गति से मन चलता है ! अर्थात मन से मंद गति बुद्धि की ! बुद्धि से मंद गति चित्त की ! चित्त से मंद गति अहंकार की और अहंकार से भी मंद गति शरीर की होती है !
आप स्वयं भी विचार करके देखना ! शरीर की व्याधियों अथवा वृद्धावस्था में व्यक्ति का प्रथम मन कमजोर होता है ! इससे बुद्धि कमजोर होती जाती है ! चित्त कहीं स्थिर नहीं होता ! अहंकार टूट जाता है ! और अंततः अंतःकरण में मृत्यु का भय व्याप्त हो जाता है ! जिसे अभिनिवेश कहते हैं–आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971″

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