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चरगोला एक्सोडास सिर्फ चाय मजदूरों का आंदोलन ही नहीं बल्कि, बराक की मिट्टी से शुरू हुआ एक महान स्वतंत्रता संग्राम था,चरगोला से मनोज मोहंती की विशेष रिपोर्ट

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चाय मजदूरों के बच्चे आज भी अपने पूर्वजों के खूनी दिनों को नहीं भूले हैं। . राताबाड़ी के चरगोला चाय बागान में रविवार दोपहर चाय मजदूरों के वारिसों ने मुल्क चलो आंदोलन या चरगोला एक्सोडास की शताब्दी वर्ष के अवसर पर शहीदों की याद में मालती उरांग सभागार में माल्यार्पण किया। बराक चाय जनजाति उन्नयन परिषद और स्थानीय चाय श्रमिकों के वारिसों की अगुवाई में कार्यक्रम का आयोजन हुआ। उस दिन अस्थाई शहीद वेदी पर दीप जलाकर और माल्यार्पण कर बराक घाटी में शुरू हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के वीर योद्धाओं को श्रद्धा के साथ याद किया गया।
1921 में सूरमा बराक घाटी में हुए प्रसिद्ध मुल्क चलो आंदोलन की 101 वीं वर्षगांठ पर, बराक चाय जनजाति उन्नयन परिषद ने ऐतिहासिक उस आंदोलन के पुण्यभुमि चरगोला घाटी चाय बागान में शहीदों की श्रद्धांजलि का आयोजन किया था। चरगोला चाय बागान स्थित मालती उरांग सभागार में रविवार दोपहर को आयोजित उस सभा में चाय बागान के 200 से अधिक लोग मौजूद थे। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर करीमगंज कॉलेज के सहायक प्रोफेसर डॉ. सुजीत तिवारी मौजूद थे। विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित थे चरगोला एक्ससोडास पर शोधकर्ता एवं लेखक विवेकानंद महंत।  बुधन एचएस स्कूल के पूर्व उपाध्यक्ष श्याम नारायण यादव, रामस्नेही प्रजापति, चंदन तिवारी, दिवाकर राय, प्रेमचन्द रायशर्मा, आशु गोवाला, अनिल कानू, राजेंद्र गोस्वामी, रमाकांत पाशी, मुन्ना लाल कैरी, बाबू कानू, चौधरी चरण गोंड़ ,संदीप साहू, विकास रंजन कलवार, विजय कानू, शिवपूजन रबिदास, घनश्याम कैरी, चंदन ग्वाला, राजू ग्वाला प्रमुख मौजूद थे।
बराक चाय जनजाति उन्नयन परिषद -के अध्यक्ष सूरज कुमार कानू ने स्वागत भाषण दिया। शोधकर्ता और लेखक विवेकानंद महंत ने अपने विस्तृत भाषण में मुल्क चलो आंदोलन के संदर्भ पर प्रकाश डाला और इतिहास के पन्नों से कई अज्ञात तथ्य प्रस्तुत किए।उन्होंने कहा कि ऐसा आंदोलन इतिहास के पन्नों में दुर्लभ है। अपने मुख्य भाषण में प्रोफेसर डॉ सुजीत तिवारी ने कहा कि चरगोला एक्सोडास के तहत चाय श्रमिकों का भारत में ब्रिटिश शासन और कंपनी के खिलाफ सबसे बड़ा श्रमिक आंदोलन था। उस आंदोलन के कारण अंग्रेजो को असम समेत सिलहट जिले में रेल और स्टीमर सेवाओं को तीन महीने के लिए रोकना पड़ा था। जिसका प्रभाव पूरे भारत पर पड़ा था। देशबंधु चित्तरंजन दास का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि वास्तव में यह भारत का स्वतंत्रता आंदोलन था जो बराक की मिट्टी से उत्पन्न हुआ था। बराक घाटी में पनपा वह स्वराज आंदोलन इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। उस आंदोलन का प्रभाव इतना था कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को उस समय बराक घाटी का दौरा करने के लिए मजबूर होना पड़ा था। परिणामस्वरूप, 26 अगस्त 1921 को, उन्होंने शिलचर में एक सभा में भाग लेकर बागान मालिकों को संबोधित किया और श्रमिकों के उपर चल रहे उत्पीड़न को समाप्त करने का आह्वान किया। लेकिन दुख की बात है कि आज भी उस ऐतिहासिक आंदोलन को उसका उचित दर्जा नहीं मिला है। वर्तमान पीढ़ी को इतिहास के उस बलिदान को याद रखना चाहिए और नई पीढ़ी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए। प्रमुख पत्रकार मनोज मोहंती और शिक्षक दिवाकर राय ने सभा में अपने अलग-अलग भाषणों में इस बात पर अफसोस जताया कि उस महान आंदोलन के शहीदों की याद में आज तक कोई स्मारक नहीं बनाया गया। इसके लिए दोनों वक्ताओं ने बराक घाटी की चाय श्रमिक समुदाय के सभी राजनीतिक नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराया।
सभी ने सरकार से उस ऐतिहासिक आंदोलन की पवित्र भूमि को ऐतिहासिक स्थल घोषित करने और स्वतंत्रता आंदोलन में शहीद हुए वीर चाय श्रमिकों के याद मे स्मारक बनाने की मांग की। चारगोला जीपी अध्यक्ष विजय कानू ने धन्यवाद प्रस्ताव दिया।
उल्लेखनीय है कि उनके शासन के दो सौ वर्षों के दौरान, उपमहाद्वीप पर अंग्रेजों द्वारा की गई क्रूरता की कोई गणना नहीं है। ज्यादातर मामलों में देश के असहाय लोग इन अत्याचारों के शिकार हुए। जिनके कंधों के सहारे अंग्रेज इस देश से ब्रिटेन में भारी मात्रा में धन की तस्करी किए। एक ऐसा क्रूर इतिहास 1921 में लिखा गया था। वह क्रूर घटना चांदपुर के मेघना घाट पर हुई।
अंग्रेजों ने सिलहट और असम के जंगलों को साफ किया और वहां चाय बागानों की स्थापना की। चाय बागानों में बहुत श्रम की आवश्यकता होती थी। स्थानीय लोग इतनी मेहनत नहीं करना चाहते थे। इसलिए बेहतर जीवन के लालच देकर दूर-दूर से श्रमिकों को लाया गया, जिन्हें कभी लौटने की अनुमति नहीं थी।
उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और मद्रास सहित गरीबी से त्रस्त भारत के विभिन्न हिस्सों से निचली जाति के हिंदुओं को काम के लिए लाया गया था। इसके अलावा, दलित और अल्पसंख्यक समूह भी बेहतर जीवन की तलाश में असम चले आए। इन निचली जाति के लोगों को एक स्वर्णिम भूमि का लालच दिखाया गया। जंहा हरी घाटियों मे हर पेड़ पर पेड़ों सोने के पत्ते भरे पड़े है और उनका काम सोने का पत्ता इकट्ठा करना। ऐसे ही लुभावने और काल्पनिक बातों से भुख से पीड़ित लोगों को आकर्षित कर असम के चाय बागानो में लाया गया ।
जब वे लोग जंगलों से घिरे पहाड़ों मे आए तो उन्हें हकीकत का अहसास हुआ। उन्हें लगातार जंगली जानवरों और जहरीले कीड़ों से लड़कर जीवित रहना पड़ा। उन्हे अपने परिवार के साथ मालिक द्वारा प्रदान की गई एक छोटी सी मिट्टी की झोपड़ी में रहना पड़ता था। दिन-ब-दिन  बारिश में भीगते हुए दिन बिताना पड़ता था। पारिश्रमिक के रूप में कोई पैसा नहीं दिया गया। टी-टोकन नामक एक धातु की शीट दी जाती थी, जिसके माध्यम से केवल बगीचे में एक निर्दिष्ट दुकान से ही सामान खरीदा जा सकता था। बगीचे के बाहर टोकन का कोई मूल्य नहीं था। इस वजह से मजदूर न तो बाहर जा सकते थे और न ही कुछ खरीद पाते थे। उनका जीवन एक चाय बागान के एक निर्दिष्ट बन्धन मे बंधा हुआ था।
अगर कोई बच कर देश लौटना चाहता तो उसे अंग्रेजो की ताकतवर गुंडे पता लगा कर उसे जबरन वापस ले आते। फिर होता था क्रूर अत्याचार। बूट किक, कोड़े मारना, और अज्ञात सभी तरह की कड़ी सजा उन्हे दी जाती । पर इतना कुछ सहने के बाद भी वे मजदूर दशकों से वहां काम कर रहे थे। महिलाओं और बच्चों को भी नहीं छोड़ा गया, सभी को कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। सिलहट और असम में लाखों चाय मजदूर ऐसी दयनीय जिंदगी जी रहे थे।
1919 में ब्रिटिश संसद में रॉलेट एक्ट पारित हुआ। इस कानून के परिणामस्वरूप भारतीयों के अधिकारों का हनन हुआ। मूल निवासियों पर गिरफ्तारियों और यातनाओं की संख्या में वृद्धि हुई। किसी भी न्याय की उपेक्षा करते हुए, पुलिस और सेना ने भारतीयों की सामूहिक गिरफ्तारी शुरू कर दी और संपत्ति जब्त करने लगी। इसी संदर्भ में महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन का पूरे भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसका असर असम और सिलहट की पहाड़ियों में कैद चाय मजदूरों में भी महसूस किया गया। श्रमिकों के बीच भी असहयोग आंदोलन की प्रतिक्रिया देखा गया, जो अंग्रेजों से नजरअंदाज नही हो पाई।
इस बीच, पूरे भारत में हर वर्ग के मजदूरो ने भी उस आंदोलन के साथ एकजुटता दिखाया।  सभी भारतीय  आजादी की मांग को महसूस करने लगे, जैसे कि इस बार ब्रिटिश अधीनता की श्रृंखला टूटने वाली थी।
1921 की घटनाएँ। भारत में चाय उद्योग के 70 साल के इतिहास में मजदूर उत्पीड़ित होने की हद तक पहुंच गई। इस स्थिति में नवीनतम कड़ी मजदूरी की कटौत। टी-टोकन के उन्मूलन के बाद, श्रमिकों को बेहद कम मजदूरी दी जाती थी। द्वितीय विश्व युद्ध की मंदी के दौरान, श्रमिकों की मजदूरी फिर से घटाकर तीन पैसे प्रति दिन कर दी गई। पर चाय श्रमिक इसे स्वीकार नहीं कर सके।
भारत में मजदूरों के आंदोलन का असर चाय मजदूरों पर भी पड़ा। असम और सिलहट क्षेत्र के चाय श्रमिकों में भारी असंतोष प्रकट हुआ। वे बागान मालिकों द्वारा हर तरह की यातनाओं से मुक्त होने के लिए कृतसंकल्प हो गए। वे गुलामी की जंजीरों को तोड़कर इस बार देश लौटेंगे। और यह यातना बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए। इस बार वे अपने वतन या ‘मुल्क’ लौटेंगे। महात्मा गांधी ने भी उस आंदोलन का पूरा समर्थन किया।
जब मजदूरों ने देश लौटने की ठान ली तो चाय बागान मालिकों के कहने पर जहाज और रेलवे हड़ताल पर चले गए। मजदूरों को कोई टिकट नहीं दिया गया। सभी संचार काट दिया गया था ताकि श्रमिक देश नहीं लौट सकें। जब वर्तमान करीमगंज जिले की चरगोला घाटी के सिंगलाछड़ा चाय बागान में मजदूर अपने अपने बागान छोड़ कर  इकट्ठा होने लगे। तब बागान मालिकों ने ब्रिटिश सरकार के साथ मिलकर साजिश रचनी शुरू कर दी।
मजदूर जब पैदल करीमगंज रेलवे स्टेशन पहुंचे तो उनसे साफ कह दिया गया कि उन्हें टिकट नहीं दिया जाएगा। अलग-अलग बागानो से समूहो में पहुंचे निराश और नाराज मजदूर नारेबाजी करने लगे। मालिकों के पास उस विशाल श्रमिकों के समूह को नियंत्रित करने की शक्ति नहीं थी। गुस्साए मजदूरों ने फैसला किया कि वे पैदल ही देश लौटेंगे। असम से, 30,000 श्रमिकों ने करीमगंज, बदरपुर, कुलोड़ा और अखौड़ा रेल मार्ग पर पैदल चलना शुरू किया। सप्ताह भर के बाद भूखे-प्यासे मजदूर चांदपुर के मेघना घाट पहुंचे।
सुशील कुमार सिंह उस समय चांदपुर  के प्रशासक थे। हालांकि, पहले तो उन्हें श्रमिको से सहानुभूति थी। लेकिन कुछ दिनों बाद, स्थिति बदल गई जब मैकफर्सन चाय बागान अधिकारियों के प्रतिनिधि के रूप में वंहा पहुंचा। 19 मई को जहाज पर चढ़ रहे श्रमिकों पर सुशील कुमार सिंह के नेतृत्व में हथियारबंद अंग्रेज सैनिक टुट पड़े। ठीक उसी वक्त  जहाज का डेक हटा दिया गया। नतीजतन, सैकड़ों बच्चे, बुजुर्ग और महिलाएं मेघना के पानी में गिर कर डूबने लगे। जिससे एक दर्दनाक और भयावह दृश्य पैदा हो गया।
लेकिन क्रूरता अभी भी बाकी था । इस बार अंग्रेजों ने मजदूरों को दण्डित करने की एक और साजिश रची। 20 मई 1921 की रात को मजदूरों को चांदपुर स्टेशन से प्रस्थान करना था। क्योंकि कुछ अन्य कंपनियों ने स्टीमर चलाने का फैसला किया। लेकिन अंग्रेजों ने शाम को आसपास के जिलों से बड़ी संख्या में पुलिस को लाकर स्टेशन को घेर लिया। उनमें से ज्यादातर गोरखा सैनिक थे। रात होने से पहले रेलवे कर्मियों को स्टेशन से बाहर निकाल लिया गया। फिर रात में जब हजारों मजदूर प्लेटफार्म पर सो रहे थे, तब  किरण चंद्र दे के नेतृत्व में गोरखा सैनिकों ने बंदूक लेकर सो रहे मजदूरों, पुरुषों, महिलाओं और बच्चों पर
भूखे भेड़िए की तरह टुट पड़े। उग्र गोरखा सैनिको द्वारा नदी में फेंके जाने से कई लोगों की मौत हो गई। मेघना नदी में सैकड़ों शव तैरने लगा। पर जिस मेघना की पानी निहत्थे चाय मजदूरों के लहु से लाल हुआ था, उस मेघना नदी की तट पर आजादी के बाद भी उन शहीदों के याद में कोई स्मारक नहीं बना। साथ ही चरगोला एक्सोडास की स्मृति से जुड़े वर्तमान करीमगंज जिले की चरगोला घाटी मे भी उन वीर स्वतंत्रता शहीदों की याद मे कोई स्मारक नही बन सका। फलस्वरूप चरगोला भेली की पवित्र भूमि सिगंलाछड़ा गांधी टीला को ऐतिहासिक स्थल घोषित करने और हजारों शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए वहां एक स्मारक का निर्माण करने की जोरदार मांग उठाई गई है।।

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